भावनाओं का सागर


मन में उठती विचारों की लहरों को शब्दों में ढालने की कोशिश है ये,

हमारी आपकी बातें हैं और पाठकों के दिलों को छू लेने का प्रयास भी है।

Latest Blog Post

बस कुछ दिनों की बात है

बस कुछ दिनों की बात है

आरती रोज अपनी सहेलियों से सुनती 'ऑनलाइन शॉपिंग की बातें '. वह सारी बातें पति को सुनाती. तब पति कहते,"तुम्हें ऑनलाइन शॉपिंग करने की क्या जरुरत ? तुम तो हमेशा बाजार जाती हो और घूम घूमकर मनचाही चीजें खरीदती हो. घर बैठे शॉपिंग करने में वो मजा कहाँ, जो बाजार में कम से कम चार दुकानों का चक्कर लगाकर चीजों को खरीदने में मजा है."


आरती को पति की बात सही लगती और वह चुपचाप अपने कामों में लग जाती. दिमाग में कभी सहेलियों की तो कभी पति की बात चलती रहती. अंततः वह निष्कर्ष निकाल ही लेती है कि सच में बाजार जाकर शॉपिंग करने में मजा आता है और शॉपिंग के बाद चटपटा चाट खाने का भी अलग मजा है. मन खुश रहे तो काम करने  में भी मन लगता है. खुश होते ही वह गुनगुनाते हुए काम करने लग जाती.


पर इस बार आरती ने ऑनलाइन शॉपिंग करने का मन बना लिया है. उसकी सहेलियां सामानों पर भारी छूट का लाभ उठा रही हैं. कभी कोई उसे किचन के सामान दिखाती जो वह ऑनलाइन मंगाई होती तो कोई सुंदर ड्रेस व पर्स दिखाती. 


मीनू ने कहा, "इतने कम दाम पर इतनी सुंदर ड्रेसेज व पर्स कहीं नहीं मिलेगी."


आरती ने उलट पुलटकर उन सामानों को देखा तो उसे भी मीनू की बात सही लगी. वह सोचने लगी कि पिछले सोमवार को बाजार में दुकानदार से मनपसंद ड्रेस के दाम कम करने को कहा तो उसने जरा भी उसकी बात नहीं सुनी. गुस्से में उसने उस दुकान से दुबारा कुछ भी नहीं लेने का मन बना लिया था. उस दिन उसका मूड कितना खराब हो गया था. पर ऑनलाइन शॉपिंग में कम दामों में कितने अच्छे अच्छे सामान मिल रहे हैं.


आरती ने ऑनलाइन शॉपिंग करने का मन बना लिया और पति के ऑफिस से आते ही अपना निर्णय सुना दिया. पति के लाख समझाने पर भी वह नहीं मानी.


पत्नी की जिद के सामने हार मानकर उन्होंने पत्नी की बात मान लेने में ही भलाई समझी.


पति की सहमति मिलते ही उसने झटपट तीन चार चीजों की ऑनलाइन शॉपिंग कर ली. उस रात उसे नींद में भी अपने सामानों की लिस्ट दिखाई दे रही थी. सुबह उठते ही वह चाय न बनाकर मोबाइल फोन लेकर बैठ गई. उसने चेक किया कि उसका सामान कहाँ से  कहाँ तक पहुंचा. उसे कब तक मिल जाएगा ? अभी चार दिन लगेंगे, यह जानकर वह फोन बंद कर दी और कामों में लग गई.


बस कुछ दिनों की बात है, सोचकर वह खुश हो रही थी. अब वह भी सहेलियों को अपनी ऑनलाइन शॉपिंग की बात कर धाक जमाएगी. चार दिन तो यूँ ही बीत जाएंगे और उसका सामान उसके हाथों में होगा. तब कितना मजा आएगा. 


आरती उन सामानों की लिस्ट मन ही मन दोहराती रहती. रोटियां बनाते हुए भी वह मन ही मन उस शॉपिंग की सपनों में खोई रहती. बच्चों को पढ़ाने का उसका बिल्कुल मन नहीं करता. उसका ध्यान दरवाजे की हर आहट पर लगा रहता. वह तुलसी के पौधे में भी पानी डालना भूल गई. तब पति ने कहा, "क्या हो गया है तुम्हें ?  क्या कोई समस्या है जिसके कारण तुम इतनी परेशान हो गई हो ? बताओ , मुझे तो चिंता हो रही है. आज तुमने अपने लाडले पौधों में पानी भी नहीं डाला. तुलसी भी सूखी पड़ी है."


पति ने उसे छेड़ते हुए कहा, "ये लक्षण तो लवेरिया के लगते हैं."


आरती ने मुस्कुराते हुए कहा,"सही कहा आपने. मुझे फिर से लवेरिया हो गया है."


पति ने भी थोड़ा नटखटपन दिखाते हुए पूछा,"तुम्हारे सपने में, दिल में मैं ही हूँ न."


आरती को भी शैतानी सूझी. उसने आँखें चमकाते हुए कहा,"दिल में तो आप ही हो. पर सपने में ऑनलाइन शॉपिंग की बातें हैं. हाय ! मेरा सामान कब आएगा ? रात दिन मैं यही सोचती हूँ. चार दिन के एक एक पल  गुजारने मुश्किल हो गए हैं."


जोर से ठहाका लगाते हुए पति ने कहा, "हाय ! ये बेताबी "


तब कॉलबेल बजी तो बच्चों ने दरवाजा खोला और जोर से चिल्लाए "मम्मी, जल्दी आईए. आपका सामान आ गया है."


आरती ने सामान ले लिया और उसे उत्सुकतावश खोलने लगी. तब बिट्ट्न बोला, "रुको रुको.सामान का पार्सल खोलते हुए फोन से  वीडियो भी बना लो. अगर सामान सही नहीं होगा तो उसका सबूत तो रहेगा."

आरती ने सोचा, "बच्चे भी समझदार हो गए हैं."


सामान भी बिल्कुल वैसा ही था जैसा बताया गया था और भारीभरकम छूट का लाभ मिला था. अब वह भी सहेलियों को ये सब सामान दिखाएगी और मॉडर्न होने का तमगा लगाएगी. उसे दोहरी खुशी हो रही थी.

पति और बच्चे भी उसकी खुशी देख मुस्कुरा रहे थे.


अचानक उसके चेहरे के भाव बदल गए. उसने कहा," ऑनलाइन शॉपिंग अच्छी तो है. पर उनका इंतज़ार करना बहुत मुश्किल होता है. बस कुछ दिनों की बात है. ये मैंने मन ही मन अनगिनत बार दोहराया है तब ये सामान आज मुझे मिला. बाजार से तो हम खरीदारी करके घर आते ही तुरंत खोलकर देखने लगते हैं. दोनों तरह की शॉपिंग का अलग अलग मजा है."


पति ने भी मौका देखते ही बातों का चौका मार दिया. कहा, "तुम्हारे ये 'बस कुछ दिनों की बात है ' मंत्र ने तुम्हें हमसे चार दिनों के लिए ही सही दूर तो कर दिया. क्योंकि तुम दिन रात ऑनलाइन शॉपिंग में खोई रही और डिलीवरी व्यॉय के आने की आहट का इंतजार करती रही. जानेमन हम पर दया करो और ऑनलाइन शॉपिंग करो भी तो इतना बेसब्री से मत जीओ कि हमें ही भूल जाओ. " आरती ने कहा, "तथास्तु."


समय के साथ चलने के लिए बदलाव लाना पड़ता है

बस कुछ दिनों की बात है, कहकर सब्र भी करना पड़ता है.

- सविता शुक्ला


वो प्यार और अपनापन....

वो प्यार और अपनापन....

ये उन दिनों की बात है, जब हम बहुत छोटे थे. मेरे पापा का ट्रांसफर  एक छोटे से गांव में हो गया था.

वहां से देवघर काफी नजदीक था. रहने के घर की अच्छी सुविधा न होने के कारण पापा ने थोड़ी सी जमीन खरीदी और एक प्यारा सा घर बनाया. क्योंकि वहां बहुत सालों तक रहना था.

वहां का वातावरण भी शांत और शुद्ध था. वहां रहने के लिए हमलोग बहुत उत्साहित थे. नया घर, नया माहौल हम सबको बहुत अच्छा लग रहा था. मेन रोड पर घर था. हमलोग हाथ दिखाकर बस रुकवा लेते थे और उसमें सवार होकर गंतव्य तक पहुंच जाते थे. बहुत अच्छा लगता था जब छोटे से बच्चे के हाथ दिखाने पर बस रूक जाती थी. दरअसल वहाँ मेरे पापा को ज्यादातर लोग पहचानते थे. इसलिए पापा के साथ रहने पर मैं बस रुकवाती थी और खुश हो जाती थी. मेरी खुशी देख पापा भी बहुत खुश होते और कभी मुझे ऐसा करने से नहीं रोकते.


हमारे पड़ोस में डॉक्टर साहब रहते थे. उनको हमलोग चाचा जी कहते थे. उनकी बेटियाँ हमारी सहेलियाँ थीं और हमारी माँएं भी पक्की सहेलियाँ बन गई थी. दोनों घरों में ऐसा मेलजोल हो गया था कि दोनों घरों के लोग एक दूसरे की सुख दुख में साथ रहते.

 हम सहेलियाँ लड़ भी लेतीं . फिर एक दूसरे के बिना रह नहीं सकतीं. इसलिए तुरंत दोस्ती भी हो जाती. 


होली, दीपावली, दशहरा हो या जन्माष्टमी हम सब लोग साथ में मनाते थे. सरस्वती पूजा में घूमने निकलते तब भी दोनों परिवारों की महिलाएं और बच्चे साथ रहते. रोज हमलोग मिलते. कभी मेरी माँ उनके घर जाती तो कभी चाची मेरे घर आतीं.हम सबको एक दूसरे की आदत हो गई थी. सुबह टहलने भी निकलते तो सब लोग टहलते और साथ में खूब गप्पें भी मारते.


फिर वे लोग भी दूसरी जगह शिफ्ट हो गये और मेरे पापा भी ट्रांसफर के कारण उस घर को बेचकर दूसरी जगह घर बना लिए. दोनों परिवारों में बहुत से उतार चढ़ाव आए.सबकी जिंदगी भी बदल गई. समय के साथ बहुत कुछ बदल गया. पर बचपन की उन खट्टी-मीठी यादों की पोटली आज भी अभिभूत कर जाती है.


एक बार मेरा पैर कट गया था और मैं जोर जोर से रोने लगी. मम्मी पापा भी बहुत घबड़ा गए. पापा ने कहा, "डॉक्टर साहब के पास ले चलते हैं.स्टिच कर देंगे तो जल्दी ठीक हो जाएगा." डॉक्टर चाचा के इंजेक्शन से मुझे बहुत डर लगता था और यहाँ तो स्टिच लगाने की बात हो रही थी. मैं रोते रोते बोली, "नहीं मैं डॉक्टर चाचा के पास नहीं जाऊंगी. नहीं मैं डॉक्टर चाचा के पास नहीं जाऊंगी." मैं ने इतना हो हल्ला मचाया कि अंत में पापा ने कहा, "ठीक है, हम तुम्हें वहाँ नहीं ले जाएंगे." फिर मेरे घाव की अच्छी तरह मरहम पट्टी की गई और होम्योपैथिक इलाज करवाया गया. पूरी तरह से ठीक होने में काफी समय लगा. एक दिन पिंकी दीदी (डॉक्टर चाचा की बड़ी लड़की ) ने मुझसे कहा, "पापा के पास जाती. दो तीन स्टिच लगाते तो तुम्हारा घाव जल्दी रिकवर हो जाता. " मैं कुछ कहती इससे पहले ही माँ ने कहा, "इसी डर से तो ये नहीं गई कि डॉक्टर साहब स्टिच लगा देगें." आज भी मेरी ऐसी हरकतों को यादकर सब खूब हँसते हैं.


समय बदलता रहा.हम सब बदल गये. जिम्मेदारियों ने हमें परिपक्व बना दिया. पर बचपन के उन दिनों के खुशनुमा पलों को यादकर आज भी होठों पर बरबस मुस्कुराहट आ ही जाती है . प्यार और अपनापन से सींचे हुए बचपन में ही तो संस्कार की मजबूत नींव पड़ती है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व को सुंदर बनाती है.

सविता शुक्ला


जादुई पेंसिल

पाकर जादुई पेंसिल मैं लगी इतराने

कभी इधर देखती कभी उधर देखती

देखने लगी सुंदर सपने

किस्मत के कोरे पन्नों पर 

इत्मीनान से बैठकर लिखने लगी 

मैं अपने सपनों की बातें

सफलता के आसमान को छूने की गाथाएं

जादुई पेंसिल ने कमाल कर दिया

उन कोरे पन्नों पर लिख दिया -

"मेहनत से ही सपने साकार होते हैं

 हारकर मत बैठो

रोज नये हौसलों के साथ मेहनत करते रहो

देर से ही सही

सपने अवश्य सच होगें

सफलता तुम्हारे कदम चूमेगें"

जादुई पेंसिल की बातें दिल को छू गई

बुझे हुए मन में आशा की बाती जल गई.

-सविता शुक्ला

26-5-2025

Contact Us

I would love to hear from you!